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तराशे जा रहे हैं / यतींद्रनाथ राही

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मौन के संभाषणों में
लिख दिये जो
पृष्ठ कोरे
फाड़ देंगे देख लेना
ये समय के ढीठ छोरे
लहर की किलकारियों की
मुट्ठियों में
स्वप्न साधे
सीपियों के सम्पुटों में
मोतियों के गुच्छ बाँधे
हम कहाँ
किस लोक में
किसको
तलाशे जा रहे हैं?

पत्थरों के विजन वन में
खो गया गोकुल कहीं पर
कल तलक तो गूँजते थे
बाँसुरी के स्वर यहीं पर
ठाँव थे
राधा कहीं, मीरा कहीं
घनश्याम वाले
रहस था
मधुघट कभी आनन्द के
आकन्ठ ढाले
चल गयी कैसी हवा
अवसाद छाते
आ रहे हैं।

ज़िन्दगी साँकल बजाती
द्वार पर कब से खड़ी है
चेतना किस मृग-तृषा के
लोक में भटकी पड़ी है
चातकी चहकी नहीं तो
स्वाति की बरसात कैसी
तार झंकृत कर न पाई
वह अधूरी बात कैसी?
प्राण कुंठित
रूप के साँचे तराशे जा रहे हैं।