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दोपहरी / महेन्द्र भटनागर

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दोपहरी का समय
अनमना...... उदास,
मैं नहीं तुम्हारे पास !

एकाकी
तंद्रिल स्वप्निल
जोह रहा अविरल बाट
खोल कक्ष-<कपाट !

चिलचिलाती धूप
बोझिल बनाती और आँखों को !
साँय-साँय करती
लम्बे-लम्बे डग भरती
हवा-दूतिका
संदेश तुम्हारा कहती
मौन !

तभी मैं उठ
भर लेता बाँहों में
कर लेता स्वीकार
सरल शीतल आलिंगन
आगमन आभास तुम्हारा पाकर !
ढलती जाती दोपहरी
होती जाती अन्तर-व्यथा
गहरी....गहरी....गहरी !
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