भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 54

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 531 से 540


  तुलसी निज करतूति बिनु मुकुत जात जब कोइ।
गयो अजामिल लोक हरि नाम सक्यो नहिं धोइ।531।


बड़ो गहे ते होत बड़ ज्यों बावन कर दंड।
श्रीप्रभु के सँग सों बढ़ो गयो अखिल ब्रह्मांड।532।


तुलसी दान जो देेत हैं जल में हाथ उठाइ।
 प्रतिग्राही जीवै नहीं दात नरकै जाइ।533।


आपन छोड़ो साथ जब ता दिन हितू न कोइ।
तुलसी अंबुज अंबु बिनु तरनि तासु रिपु होइ।534।


 उरबी परि कलहीन होइ ऊपर कलाप्रधान।
तुलसी देखु कलाप गति साधन घन पहिचान।535।


तुलसी संगति पोच की सुजनहि होति म-दानि।
ज्यो हरि रूप सुताहि तें कीनि गोहारी आनि।536।


कलि कुचालि सुभ मति हरनि सरलै दंडै चक्र।
 तुलसी यह निहचय भइ। बाढ़ि लेति नव बक्र।537।


गो खग खे खग बारि खग तीनों महिं बिसेक।
तुलसी पीवैं फिरि चलैं रहैं फिरि चलैं रहैं फिरैं सँग एक।538।


साधन समय सुसिद्धि लहि उभय मूल अनुकूल।
तुलसी तीनिउ समय सम ते महि मंगल मूल।539।


 मातु पिता गुरू स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरू जनमु जग जायँ।540।