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दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 53

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दोहा संख्या 521 से 530


 रैयत राज समाज घर तन धन धरम सुबाहु।
सांत सुसचिवन सौंपि सुख बिलसइ नित नरनाहु।ं521।


मुखिआ मुखु सो चाहिऐ सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक।522।


सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ।523।


सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होहि बेगिहीं नास।524।


रसना मन्त्री दसन जन तोष पोष निज काज।
प्रभु कर सेन पदादिका बालक राज समाज।525।
 

लकडी डौआ करछुली सरस काज अनुहारि।
 सुप्रभु संग्रहहिं परिहरहिं सेवक सखा बिचारि।।


प्रभु समीप छोटे बड़े रहत निबल बलवान।
तुलसी प्रगट बिलोकिऐ कर अँगुली अनुमान।527।


साहब तें सेवक बड़ो जो निज धरम सुजान।
राम बाँधि उतरे उदधि लाँधि गए हनुमान।528।


तुलसी भल बरतरू बढ़त निज मूलहिं अनुकूल।
सबहि भाँति सब कहँ सुखद दलनि फलनि बिनु फूल।529।


सधन सगुन सधरम सगन सबल सुसाइँ महीप।
तुलसी जे अभिमान बिनु ते तिभुवन के दीप।530।