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धूप / वाज़दा ख़ान
Kavita Kosh से
हरी धूप पर बर्फ़-सी बिछी सफ़ेद धूप
गढ़ रही है अपने कुशल हाथों से तमाम अक्स
आसमान के माथे पर सूरज टँकने के बावजूद
अस्पष्ट हैं आकृतियाँ
अस्फुट से हैं स्वर कुछ बुदबुदाहटें हैं
अकथनीय है जीवन की परिभाषा
बहरहाल चलो रू-ब-रू होते हैं दूब के संग
जो साहस और शिद्दत के साथ
सूरज का सामना करती हुई
पाँव तले रौंदे जाने पर भी शीश उठाए
खिली है
कहीं यह उसकी मज़बूरी तो नहीं ?