भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदी फ़िलहाल / शलभ श्रीराम सिंह
Kavita Kosh से
दो हिस्सों में बँट गई नदी
दो धाराओं में बहती हुई साथ-साथ
दो दिशाओं में जाती हुई चुपचाप।
कितनी बचेगी कहाँ
सूखेगी कितनी, इससे बेख़बर
दो हिस्सों में बँट गई है नदी।
न ज़मीन की प्यास रोक पा रही है उसे
न आसमान की भूख
न समुद्र की चिंता
अपने सुख तक से अपरिचित
अनभिज्ञ अपने दुःख से
दो हिस्सों में बँट गई है नदी।
कितनी-कितनी धाराओं में बंटेगी अभी
बहेगी कितनी-कितनी दिशाओं में एक साथ
कितने-कितने पठारों और कछारों से होकर
जानती नहीं है ख़ुद भी....
नदी दो हिस्सों में बँट गई है फ़िलहाल।
रचनाकाल : 1992 मसोढ़ा