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नहीं ही माना / रमेश रंजक
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हाँ ! जिन्हें मैंने नहीं माना
नहीं ही माना
दोस्त होकर जो हुए दुश्मन
उनके ज़हन में था
एक बासीपन
तोलने के लिए यह कमज़ोर पैमाना
नहीं ही माना
हो गई नाराज़, होने दो
जब कभी बूढ़ी अदाकारी
भेद भीतर और बाहर कर सकूँ
नहीं आई, नहीं आई, यह समझदारी
सूखना जब-तब अकेले में
और मेले में नहाना
नहीं ही जाना
की नहीं चिन्ता कभी परछाइयों की
बात की मैंने
आदमी को चीज़-सा जो देखती है
उस नज़र बदजात को मैंने
जान कर भी किया अनजाना
जिन्हें मैंने नहीं माना, नहीं ही माना