भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निगाहों में समाता जा रहा है / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
निगाहों में समाता जा रहा है
वही बस याद आता जा रहा है
लगे हैं जख़्म कितने ही न जाने
मगर वो मुस्कुराता जा रहा है
बड़ी खामोश सी हैं ये फ़िजायें
वो फिर भी गुनगुनाता जा रहा है
नहीं जो दूर जा कर लौट पाता
उसे ही दिल बुलाता जा रहा है
तसल्ली कोई तो दे जाय उस को
जो तन्हा छटपटाता जा रहा है
घिरी है रात अँधियारी घनेरीग्
दिया बस झिलमिलाता जा रहा है
न पूछो आज तनहाई का आलम
ज़िगर में ग़म समाता जा रहा है