निज सुख-लेश वासना का / हनुमानप्रसाद पोद्दार
निज सुख-लेश वासनाका जिनके मनमें अत्यन्ताभाव।
केवल कृष्ण-सुखेच्छा-जीवन यह पवित्र श्रीगोपीभाव॥
सोचा था-इन गोप-देवियोंके समान कर सब कुछ दान।
सुख पहुँचाऊँगा सुखसागर को कर निज सुख का बलिदान॥
मन, प्रति इन्द्रिय, रोम-रोम उनकी सेवा कर होंगे धन्य।
दुर्लभ ब्रह्मास्पर्श प्राप्तकर सुखसागर के सेवाजन्य॥
सखी-भान अलय पाकर मैं, पाकर नित सेवा-अधिकार।
दिव्य धाममें वास करूँगा, तरकर मायासिन्धु अपार॥
जब मनमें घुसकर देखा तो दीखे भरे अनन्त विकार।
भोग-वासना नाच रही सब, कृष्ण प्रेमका बाना धार॥
कहाँ कामनाग्रस्त नीच मैं, काम-मोह का क्रीत गुलाम।
कहाँ वेद-ऋषि-वाछित पावन श्रीगोपी पद अति अभिराम॥
कुत्सित काम-वासना मनमें लेकर गोपीपदका नाम।
अपने काले कर्मोंसे मैं करने चला उसे बदनाम॥
आगे बढ़ता कहीं, झुलस मैं जाता, पाता दुःख अपार।
भीषण नरक-यन्त्रणा पाता, सहज पहुँचकर नरकागार॥
बचा लिया पर प्रभुने अपनी सहज दयाका कर विस्तार।
सिद्ध कर दिया-कामी जनका नहीं प्रेम पथ में अधिकार॥