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परिंदा जब भी कोई चीख़ता है / जयंत परमार
Kavita Kosh से
परिन्दा जब भी कोई चीख़ता है
ख़ामोशी का समुंदर टूटता है
अभी तक आँख की खिड़की खुली है
कोई कमरे के अंदर जागता है
चमकती धूप का बेरंग टुकड़ा
अकेला पर्वतों पर घूमता है
घने जंगल से लेकर घाटियों तक
हवा का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता है
गली के मोड़ पर तारीक कमरा
हमारी आहटें पहचानता है
बुलंद आवाज़ में कहती हैं लहरें
समुंदर दो किनारे जोड़ता है।