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पल दो पल / यतींद्रनाथ राही

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सुख मिलता है
उलझी सुधियाँ
आओ! कुछ सुलझाएँ।
तुम स्वेटर
मैं गीत
बैठकर बुनते थे आँगन में
एक साथ भीगे थे कितने
हम दोनों सावन में
धूप तपी बरसातें ओढ़ीं
एक साथ ही ठिठुरन
एक साथ मिलकर झेली थी
पीर मिली या पुलकन
वही पुरातन गीत
आज फिर
पल दो पल तो गाएँ।
एक भूख थी
एक प्यास थी
सदा एक थे सपने
देही थे या हम विदेह थे
थे प्राणों से अपने
एक रेशमी डोर
साँस के मोती गुथे हुए थे
किसी विमादक मलयगन्ध की
विस्मृति
छुए हुए थे
वह अनुभूति
षुष्क प्राणों में
आओ फिर अखुआएँ
फलित पुष्पिता
फुल बगिया के
हम पीले पत्ते अब
किसी हवा में
झर जाएँगे
कहाँ न जाने कब?
देते रहें छाँव जब तक हैं
इस डाली से चिपके
फिर तो
कौन कहाँ किसका है
हम होंगे फिर किसके?
चलें साथ
जब चलना ही है
यों कैसे रुक जाएँ?