रात के पहाड़ को काटकर
सपने पठार होंगे
उपजेंगी सीढ़ीनुमा खेतों में
दर्द की फसलें
चरवाहा गीत गाएगा
गड़ेरिया हाँक ले जाएगा
अपनी भेड़ें
खूटे से बंधी गाय की आँखों में
हरियाली तैरकर बहती होगी
रंभाते बछड़ों के सुर में
अवसान से पूर्व का आलाप होगा
हाथ की उभरी लकीरों का दाग
घिसकर मिटाएगी
ज़िंदगी समय के पत्थर पर
दीवारों से सर टकराते लोग
नहीं ठहरेंगे किसी मोड़ पर
किसी इंतजार में
औपचारिकताओं की धुँध ने
काटी संवेदना की साँस
कि मैय्यत में जाते हुए भी
सुविधा नहीं भूलता आदमी
पाँव की पीठ पर
उकेरना नींद
वहम को थपकियाँ देना
सुनाना लोरियाँ मन के बहरेपन को
कि फिर जागती देह का जागना
पठार से पहाड़ होकर.