पहेली / जगदीश गुप्त
तुम्हें जानें
अगर इस बार बतला दो
हमारी मुट्ठियों में है छिपी क्या चीज़।
ऊँ हुँ ! क्यों बताएँ हम
छिपाने में पुरुष होते नहीं हैं कम
किसी से भी।
न बतलाओ, नहीं मालूम है तो,
यों किसी को दोष देने से
मिलेगा क्या।
मिलेगा क्या?
यही तो पूछना था
हाँ ! सुनो यदि हम बता दें
तो मिलेगा क्या।
किसी के प्रश्न करने पर
नया-सा प्रश्न कर देना —
नहीं
अच्छी नहीं यह बात
पहले दो हमारे प्रश्न का उत्तर
हमारी मुट्ठियों में है छिपी क्या चीज़
बतलाओ।
बताऊँ?
हाँ !
मुझे झुठला रहे यूँ ही
न होगा कुछ
दिखा दो खोलकर मुट्ठी
नहीं तो ख़ुद बता दो न —
बताऊँ? सुन सकोगे?
है छिपी इन मुट्ठियों के बीच में
मजबूरियाँ — लाचारियाँ — असमर्थताएँ
एक हो जिसको बताएँ
मुट्ठियाँ ये हैं बनी फ़ौलाद की
सबको समेटे
युग-युगों से बन्द हैं अब तक
नहीं तो चटचटाकर टूट जातीं उँगलियाँ —
सब दर्द छितराता
तुम्हें मालूम हो जाता
कि मैं सच कह रहा हूँ
कुछ हँसी की बात है इसमें नहीं —
जो है हक़ीक़त है, हँसो मत तुम
अगर अब भी न हो विश्वास
खिंच आओ ज़रा इन मुट्ठियों के पास
सुन लो दर्द की आवाज़
शायद है इन्हीं में ज़िन्दगी का राज़
रखना सिर्फ़ अपने तक इसे तुम
किसी दिन काश खुल जातीं
कहीं ये मुट्ठियाँ मेरी
लगा मजबूरियों को आग
ले आता तुम्हें मैं खींच अपनी ज़िन्दगी के पास
श्वासों में उलझते श्वास,
तुम हो सके तो खोल दो ये मुट्ठियाँ मेरी
बढ़ाओ हाथ — उट्ठो — मत करो देरी
मगर यह क्या — तुम्हारे भर गए लोचन
कमल कोमल उँगलियाँ मुड़ चलीं बेबस
अँगूठे भिंच गए सहसा
तुम्हारी मुट्ठियाँ भी बान्ध दीं आख़िर
इन्हीं मजबूरियों ने — बस
मुझे अब कुछ नहीं कहना
कहूँ भी क्या
कि जब मजबूरियों के बीच ही रहना।