पूर्वजों के गर्भ में ठहरा समय / योगेंद्र कृष्णा
मैं तुम्हें
अपने हिस्से का आकाश
अपनी नदी के दोनों पाट सौंपता हूं
दो पाटों के बीच का
अनंत विस्तार भी तुम्हारा है
मैं तो सिर्फ
इस पाट से उस पाट तक
अनंत इस विस्तार में
शांत उदात्त लहरों के साथ
डूबना उतराना चाहता हूं
तुम्हारी आंखों की नदी के बीच
कुछ लम्हा ठहर जाना चाहता हूं
तुम्हारी जिज्ञासा, सहज कौतुहल बन
उस पाट का स्पर्श कर
इस पाट तक लौट आना चाहता हूं
बहना चाहता हूं
तुम्हारे मन-प्रांतर के कोने-कोने तक
एक नदी बन कर
ले जाना चाहता हूं
मैं तुम्हें
पहाड़ की उन कंदराओं में
जहां होठों से निकले शब्द
संगीत की तरह बजते हैं
मैं नहीं जानता
यह ऋषियों फकीरों की
निरंतर साधना का प्रतिफल है
या तुम्हारे प्यार का
कि मेरे हिस्से का आकाश
पहाड़ और घाटियों का अनवरत संगीत
आज भी सुरक्षित है तुम्हारे लिए
चलो, अच्छा हुआ
इस आकाश और पृथ्वी के बीच
बहुत कुछ देख चुकी आंखों का
अनदेखा जादुई संसार
अब तुम्हारा है
सुदूर गांव से आई
नेह की गुहार लगाती
इस मुनिया के सुख-दुख
की सौगात भी तुम्हारी है
चुन्नू काका के नंगे पांव से
लिपट कर आई
गांव की मिट्टी से
तुम्हारे फर्श पर सज गई अल्पना
अब तुम्हारी है
हमारे पूर्वजों की अस्थियों में
अनजाने सपनों और दुआओं
की सुलगती राख
और उनके गर्भ में
ठहर गए समय का
उफनता ज्वार भी...
तुम्हारा है