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प्राण-यात्रा / मुकेश निर्विकार

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‘बाबा’ जब हुए होंगे पैदा
बरसों पहले,
सोचता हूँ कभी:
बजी होंगी बधाइयाँ,
घर की ड्योढ़ी पर
मनी होंगी खुशियाँ।
गाजे-बाजे के साथ
हुआ होगा कुआँ-पूजन बाबा का
निकले होंगे घोड़े पर कभी
शान-ओ-शोकत से
सिर पर अपने मौहर बांध
शान-औ-शौकत से
सिर पर अपने मौहर बांध
अम्मा को ब्याहने।

कभी घर के अहम् आदमी
हुआ करते थे बाबा
मगर आज मरे हैं
चुपचाप
शहर में
अपने लड़के पास
बेखबर बनाकर।

यही मिट्टी के मांस तक
और मांस से मिट्टी तक
सांस की प्राण-यात्रा है!