प्रीतम तुम मो दृगन बसत हौ।
कहा भरोसे ह्वै पूछत हौ, कै चतुराई करि जु हंसत हौ॥
लीजै परखि सरूप आपनो, पुतरिन मैं तुमहीं जु लसत हौ।
'वृंदावन' हित रूप, रसिक तुम, कुंज लडावत हिय हुलसत हौ॥
प्रीतम तुम मो दृगन बसत हौ।
कहा भरोसे ह्वै पूछत हौ, कै चतुराई करि जु हंसत हौ॥
लीजै परखि सरूप आपनो, पुतरिन मैं तुमहीं जु लसत हौ।
'वृंदावन' हित रूप, रसिक तुम, कुंज लडावत हिय हुलसत हौ॥