प्रेम स्मृति-5 / समीर बरन नन्दी
उस दिन तुम्हारे घर जब पहुँचा
तुम दोनों पाँव सोफ़े पर रख कर
जाने क्या सोचने में लगी थीं ।
थोड़ी सी धूप, काम-लोलुप हो कर
तुमसे लिपटी हुई थी... देखा तो
वही मेरे आगे बाधा बनी हुई थी ।
दो पद्म भोर खेल रहे थे
तुम्हारे पाँव के पत्तों पर
पास ही हारमोनियम रखा था ।
मेरे खड़े होने की छाया पा कर
भड़क उठी थीं तुम, मधुमक्खी कि तरह
भगाने में लग गई थी ।
और मेरे पास मेरी पाली हुई दस मधुमक्खियाँ
तुम्हारी देह की छाया पर
मण्डराने लगी थीं ।
फिर संध्या आ गई थी, चिड़ियों की तरह
घर लौटते हुए, दो पंख ज्यों खोले
भारी हो गया था मुखमण्डल, मै नहीं था ब्राह्मण ।
उस दिन से आधे-अधूरे-अँधेरे में
सबसे सुन्दर तुम बन बैठीं, रात आने पर -- थोड़ी-सी
चाँदनी, तुम्हारे मुख पर मल लिया करता हूँ मैं
आकाश में होता है चाँद
ठण्डी रात की तरह
आँखों से झरता है कुहासा...