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प्रौढ़ा / रस प्रबोध / रसलीन

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पति-अनुराग वर्णन

बीते दिन डर लाज के अब आवत यह प्रान।
एको पल निज कंत कौ अंत न दीजै जान॥142॥
जब वनिता वृषरासि मैं रवि जोबन चमकाइ।
मदन तपति प्रति द्यौस बढ़ि लाज सीत छटि जाइ॥143॥

प्रौढ़ा के चार भेद
प्रथम भेद-उद्भय्यौवना प्रौढ़ा

गजगौनी तुव गुन चितै रीझि गई सब बाल।
कुच कुंभनि ते पेलिकै बसि करि लीन्हों लाल॥144॥

द्वितीय भेद-मदनमदमाती प्रौढ़ा

कुच पिय हियहि लगाइ तिय अंग मोरि अँगराइ।
उरज गहन अठिलाइ कै नैन मिलै मुसुकाइ॥145॥

तृतीय भेद लुब्धा प्रतिप्रौढ़ा

धन सरूप अरु सुमति कौं सरस सबनि तें जानि।
गुरजन दुरजन ईस सम सीस नवाए आनि॥146॥

चतुर्थ भेद-रति कोविदा प्रौढ़ा

विमल गंग सी धनि रची बिधि अखंग रसदानि।
जा प्रसंग मैं पाइये सुख तरंग को खानि॥147॥

रति सरूप धरि औतरै सिखै भारती भाइ।
तऊ रावरी सुरति गुन सकै न केहू पाइ॥148॥

रति कोविदा के दो भेद
रतिप्रिया, आनन्दातिसंमोहा-प्रौढ़ा

ये द्वै प्रौढ़ाहूँ कोऊ कबि बरनत यह जानि।
इनहुँन को बरनन कियो उदाहरन मैं आनि॥149॥

रतिप्रिया-उदाहरण

पियत रहत पिय अधर नित भूख प्यास बिसराइ।
चखै न ऊख मयूष वरु वा पियूष कौं पाइ॥150॥
लाल रंग मैं पग रही बहिर अंत इक बानि।
सदा सोहागिनि फुलती सदा दामिनी जानि॥151॥

आनन्दातिसंमोहा-उदाहरण

गहत बाँह पिय के अली छुट्यो कंप तन आइ।
भगी दृगन लौं लाज सुधि हिय सों गई बिलाइ॥152॥
ललन गहन सुख ते गयौ मोह नींद लौं छाइ।
मार करन की सुधि अली जागी भोरहिं आइ॥153॥

प्रौढ़ा का मुड़कर बैठना

पिय चितवत तिय मुरि गई कुलहित पट मुख लाइ।
अमी चकोरन के पियत घन लीन्हौं ससि छाइ॥155॥

प्रौढ़ा का सुरतारंभ

बाह गहत सीबी करति कुच परसत सतराति।
तिय निज महत बढ़ाई कै रुचि उपजावति जाति॥155॥

प्रौढ़ा की सुरति

आलिंगन चुंबन करत कोक कलन के घात।
दंपति रति रस लेत हूँ कहूँ न नैकु अघात॥156॥
यौं उर लागत सेज तें बाम स्याम गहि बाँह।
ज्यौं बिजुरी घन सेत की दुरै असित घन माँह॥157॥
ललन मुकुत टूटत परे बाल हाथ कुच आइ।
बूँद बचाये सिव मनौं सरसोरुह सिर लाइ॥158॥

प्रौढ़ा की विपरीत रति

टीका छुटि विपरीति खिन परयौ उरोजन आइ।
हाथ चलायौ ससि मनो कमल कली अरि पाइ॥159॥
छिनिक लेति है सुरति सुख छिन राचति विपरीति।
अध ऊरध उलटत रहै विब्ब कैतकी रीति॥160॥

प्रौढ़ा का सुरतांत

ढुरकि परी कहुँ उरबसी नख कुच सीस सुहाइ।
तरणि छप्यौ मनु गिरि सिखर द्वैज कला दरसाइ॥161॥
जिन अभरन साजे हते करिबे को रस रंग।
तिनते अति छबि देत है स्वेद बुंद तुव अंग॥162॥
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पतिदुःखिता-वर्णन

इनि भेदन मैं जो कोऊ रसभासा बिख्यात।
मुग्धा कुलटा हूँ विषै सो पुनि पायो जात॥163॥

मूढ़पतिदुःखिता

अति मीठे अरु रस भरे लाल रसाल सुभाइ।
तनिक कचाई कठिनई प्रगट करति है आइ॥164॥
ललित सलोने ललन पै तजि गुरजन की आनि।
गरे लगति है आइ ज्यौं नेहप को पकवानि॥165॥

बालपतिदुःखिता

बारे पिय के हाथ तिय राखनि कुच पै लाइ।
कमलन पूजत शिव मनों बली मदन को पाइ॥166॥

बृद्धपतिदुःखिता

धरति न धीरज काम ते वृद्ध नाह को पाइ।
बाल सेत अवलोकि मुख बाल सेत ह्वै जाइ॥167॥

मुग्धा तथा धीरादि का अन्तर

मुग्धा मैं जो मान को बरनत हैं कवि ल्याइ।
सो बिस्रब्ध नवोढ़ मैं आनि कछू ठहराइ॥168॥
मान हेत धीरादि को यह जानत सब कोइ।
पै मुग्धा मैं कैसहूँ धीरादिक नहिं होइ॥169॥
धीरादिक मैं मूल है विग्यादिक की टेक।
सो मुग्धा मैं होत नहिं विग्य अविग्य विवेक॥170॥

धीरा खंडिता का विवेक-प्रसंग-वर्णन

मान हेत धीरादि अरु खंडिताहुँ को जानु।
तिन दुनहुन के भेद मैं यह कवि करतु बखानु॥171॥
लघु मध्यम गुरु मान को सब हेतन को पाइ।
धीरादिक के भेद सों होत तियन मो आइ॥172॥
हेत खंडिता को कहै सुरत चिह्न ही जानि।
तहाँ मिटै गुरमान हित धीरादिकहुँ आनि॥173॥
पुनि धीरादिक साथ मैं मिलै जो खंडित साथ।
सों यह मध्य अधीर है यह जानत बुधिनाथ॥174॥
यासो कोइ इनहूँन मैं भेद धरति नहिं लाइ।
कोउ धरे यहि भाँति सौं भिन्न भिन्न ठहराइ॥175॥
चिह्न हेत गुरमान के ते द्वै विधि जिय जानि।
चिह्न हेत गुरमान के तें द्वै विधि जिय जानि।
इक साधारन दुतिय जिय असाधारनहिं मानि॥176॥
निहचै रति प्रगटै नहीं सो साधारण जोइ।
चिह्न असाधारन सु तो रति परगट करि होइ॥177॥
पग छूटी दृग अरुनई अलसानादिक भेद।
ये साधारन चिह्न हैं जानि लेहु बिनु खेद॥178॥
दृगन पीक अंजन अधर नख रेखादिक और।
चिह्न असाधारन बिषै वरनत कवि सिरमौर॥179॥
सो इन द्वै बिधि चिह्न मैं धरे आनि यहि टेक।
धीरादिक अरु खंडिता याते लहै विवेक॥180॥
साधारण चिन्है धरै हेत व्यंग को पाइ।
केवल वरनादिक विषै यह मनु समुझि बनाइ॥181॥
चिन्ह असाधारण सु तो जानु खंडिता हेत।
खंडित ही मैं धरतु हैं जे कवि बुद्धि निकेत॥182॥
जो कोउ यह परमान की साखी चहै बनाइ।
सो देखै रसमंजरी उदाहरन को जाइ॥183॥

मध्या, प्रौढ़ा धीरादि का भेद-वर्णन

मान भेद ते तीनि विधि मध्या प्रौढ़ा होइ।
धीरा और अधीर तिय धीराधीरा जोइ॥184॥
कोप करै जो व्यंगजुत सो धीरा जिय जानि।
जो रिस करै अविज्ञ सो सो अधीर पहिचानि॥185॥
विग्य अविग्य दोऊ विषै कोपै धीर अधीर।
मध्या प्रौढ़ा दुहुँन मैं यह बरनत कवि धीर॥186॥

मध्याधीरादिक-लक्षण

विंग बचन धीरा कहै प्रगट रिसाइ अधीर।
मध्या धीराधीर सों रोइ जनावै पीर॥187॥

रसमंजरी के मत से
धीरादिभेद साधारण सुरति चिह्न के उदाहरण
मध्याधीरा

चलन अलिनयुत कुंज पिय स्वेद चल्यौ जो गात।
तेहि सुखवति हौं बात मैं लै पुरइन कौ पात॥188॥
तुम अवसेरत मो दृगन गई जु नींद हिराइ।
सोइ लाल लागी मनो दृगन रावरे आइ।189॥
सिथिल अंग पियरो बदन अंग अंग अलसात।
कौन माल सों लाल तुम लरि आये हौ प्रात॥190॥

मध्याधीरा उदाहरण

कहुँ ठगे कितहूँ खँगे अति सबबगे सनेह।
लाज पगे दृग रगमगे जगे कौन के गेह॥191॥
लाल एक दृग अगिनि ते जारि दियौ सिब मैन।
करि ल्याये मो दहन को तुम द्वै पावक नैन॥192॥
यही बड़ाई तुम लखी मेरे हिय ठहराइ।
हाथ परत हौ और के पाय परत मो आइ॥193॥
रीत सँजोगी बरन की राखत हौ सिरमौर।
गुरुताई यह मोहि दै मिले रहत हौ और॥194॥

मध्याधीराअधीरा-उदाहरण

निसि बिछुरी कटु बचन कहि यों रोई लखि कंत।
औंटि बोलि उफनाइ ज्यौं छीर चुवत है अंत॥195॥
कत न बोलियत निठुर के यौं पूछत गहि हाथ।
धन अँसुवा धन बूँद लौं झरें बात के साथ॥196॥

मध्याधीराअधीरा आकृति-गोपना
सादरा वर्णन

आकृति गोपन सादिरा निज निज मति के तंत।
मध्याधीर अधीर कौ प्रौढ़ा धीर कहंत॥197॥
रीति स्रो व्यंग्याविंग्य की जामै पाई जाति।
मध्या धीराधीर ते यातें सुभ ठहराति॥198॥

मध्याधीरअधीर आकृति-गोपना-उदाहरण

पिय बिनवत तू सुनत नहिं दयै तूल सै कान।
लाल बोर हेंरत न क्यौं दृग दुख देति निदान॥199॥

मध्याधीराअधीरा सादरा

जे कहियत आदर बचन मधुर चीकने ल्याइ।
बिष की संकु प्रकट करत सहत घीव इक भाइ॥200॥

प्रौढ़ाधीरादिक-लक्षण

धीरा रिस रति खिन करै हनै अधीर रिसाइ।
प्रौढ़ा धीर अधीर रिस गोप हनै अनखाइ॥201॥
पिय आवत आदर कियो बोली कछु मुसुकाइ।
तनी कंचुकी के गहत धन भ्रू तानि बनाइ॥202॥
दुरी गाँठि जो बाल हिय लखहु न काहू नाथ।
प्रगट बाल मधि गाँठ लौं भई गहत ही हाथ॥203॥

प्रौढ़ाअधीरा-उदाहरण

पाग ढुरी पीरी खरी पिय मुख परी निहारि।
फूल छरी कर मैं धरी अनख भरी झिझिकारि॥204॥
स्याम हारि कर नारि सों यौं छुटि लाग्यौ नाह।
मनु चंदन की डार तें अहि तमाल तन माह॥205॥

प्रौढ़ा धीराअधीरा-उदाहरण

नैन लाल तकि रिसभरी कछू न बोलति बाल।
बाँह गहत ही लाल उर हनी तोरि उर माल॥206॥
जाहि करत पिय प्यार अति ताहि ज्येष्ठा नाम।
जापर कछु घटि प्यार ह्वै सो कनिष्ठका बाम॥206-ए॥

ज्येष्ठा कनिष्ठा-उदाहरण

किन विचित्र यह खेल बलि दीन्हौ तुम्हहिं सिखाइ।
मूठि मारि वाके दृगन मो मुख मीडत धाइ॥207॥
अधिक ठगी हौं रावरी लखि चतुराई नाथ।
इक दिखाइ ससि एक के हिये धरत हौ हाथ॥208॥

ज्येष्ठा कनिष्ठा के भेदों में से
धीरादि-कथन

धीर तु आदिक भेद षट जे बरने कवि जान।
ज्येष्ठ कनिष्ठ प्रकार तें द्वादस होत निदान॥209॥
मुग्धा मैं ह्वै भेद इन द्वादस भेदनि संग।
तेरह बिधि सुकियान को बरनत बुद्धि उतंग॥210॥

स्वकीया पतिव्रता-भेद कथन

सुकिया और पतिब्रता मैं यह भेद विचारि।
वह सनेह यह भगति सों सेवति है निरधारि॥211॥