भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फर्क-1 / भरत ओला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पत्थर के टूकड़े
जब लुढ़कते है
टूट कर
तो एक आवाज होती है
गड़गड़ाहट, बेहद, कर्कश, भारी !

मगर
जब फूल टूटता है
तक न आवाज होती है
न गड़गड़ाहट
बूंद दो बूंद
आँसू की
टपक जाती है
जमीं पर
चुपचाप, निस्तब्ध !