फिर तेरा ऐतबार क्या करती
लेके ग़म बेशुमार क्या करती
चार दीवारी घर की रास आई
अपनी देहलीज़ पार क्या करती
जिसकी फ़ितरत में बेहयाई हो
उसको मैं शर्मसार क्या करती
मेरे एहसास मर गए जैसे
ज़ख्म अपने शुमार क्या करती
जो खिज़ां की मैं हो गयी आदी
इंतज़ार ए बहार क्या करती
मैं तो बस सादगी की क़ायल हूँ
तुम बताओ सिंगार क्या करती
जंग खाये हुए है सब अल्फ़ाज़
अपने शेरो में धार क्या करती