भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर वही किस्सा / वत्सला पाण्डे
Kavita Kosh से
वही किस्सा फिर
सुनाने लगे तुम
जिसकी आवाज़ से
भागती रही हमेशा
जिसे भूल जाना
चाहती रही मैं सदा
किस्सा जो
हो नहीं सकता
कभी पूरा
जाग गई इच्छा
तब
क्या करूंगी मैं
मत जगाओ
इतना कि
तरसती ही रहूं
नींद के लिए सदा
सुनाना ही है
तब
सुनाओ वही किस्सा
कि
उनींदी रहूं सदा