फूल केवड़े का / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
एक अदद फूल केवड़े का
कहाँ तक बचाकर मैं लाया -ले आया!
बागीचे में अपने हाथों बचपन के-
काँटों से ढँका फूल तोड़ लिया नमके;
दरवाजे सजा दिया, थी निगाह सहमी,
खुशबू से मँह- मँह करती गहमागहमी;
पर्व सभी पुलके, त्यौहार हुए ताजे,
हवा में उगे पंजे लिए सौ तकाजे!
...आँधी, ..भूकंप...अगलगी में
घर छूटा, दर छूटा,छूटा बगीचा;
बिस्तर ने कभी,कभी मंदिर ने खीचा!
निर्वासित फूल केवड़े का
बचाकर यहाँ तक मैं लाया -ले आया!
नाते-रिश्ते के दोमुँहे दोरुखे से-
हाथों-हाथों गुज़रा फूल झरोखे से;
अंजुरी में बँधा उधर,अंतर तक दमका,
माथे से लगा इधर,शोणित में गमका;
हर तनाव झेल गया युवा-हथेली पर,
पखुरियाँ नोचने बढ़े सारे वनचर।
...साज़िश, ..कानून, ..दुश्मनी से
ताश के महल टूटे,धीरज-फल टूटे;
आसरे-भरोसे के सारे पुल टूटे!
यों आहत फूल केवड़े का
यहाँ तक बचाकर मैं लाया -ले आया!
निजी स्वप्न ढूँढता परायी आँखों में,
गंध-गुण सिरजता तितली की पाँखों में
गदराया जो पराग कोश से समय के-
लाँघ गया लावे की नदी साथ लय के,
मौसम ने जंगल फौलाद के उगाये;
छुआ,तो सलाखों में बौर निकल आये!
-मरूथल से, कई पठारों से-
गुज़रा जो, सूख गिरे दल सभी कटीले;
बरसे, आखिर बरसे मेघ भी रसीले!
दूरागत फूल केवड़े का
वहाँ से तुम्हीं तक मैं लाया -ले आया!