Last modified on 25 फ़रवरी 2012, at 19:43

बँटवारे न कर / सोम ठाकुर

इन्द्रधनुषों को दिशायें बाँधने दे
खुश्बुओं के बीच बँटवारे न कर

खंडहरों की गूँज को सुन ले ज़रा, ये
ब्याज हैं डूबे हुए उस मूलधन की
खूब है हम, अजनबी - सी आँधियों में
व्यर्थ कस्तूरी गँवा दी प्राण मान की
दो गुलाबों के सदन हैं उन महकते
मधुवनों को आज अंगारे न कर

अनहदों के छोर छूकर भी ना जाने
रम गया तू किस घुटन वाली गली में
किस कदर छोटा किया आकाश तूने
डालकर खुद को अंधेरी खलबली में
सिद्धियाँ सब लौट जाएँगी यहाँ से
बीजमंत्रों को कभी नारे न कर

शुक्र कर तू सूर्य जैसी साधना का
बाँटते थे हम ज़माने को उजाले
लोक-मंगल के लिए वनवास भाया
सालते थे जब वसंतों को कसाले
ये दिए कितने जतन से जल सके हैं
रोशनी के द्वार अँधियारे न कर