Last modified on 24 सितम्बर 2008, at 20:53

बस : कुछ कविताएँ-1 / रघुवंश मणि

बिगड़ गई है बस

खड़ी है किनारे


ठुक-ठुक

लगाए है डाईवर

गाड़ी के नीचे

उत्सुकतावश झुके हैं

कुछ लोग


चाय की दुकान की

तलाश में

दस-पाँच


करीब की सवारियाँ सड़क पर

दो-चार

रोकती हैं आते

जाते वाहन

बाक़ी कुछ

अंदर झल रहे हैं

उबाऊ अख़बार


बता गया है परिचालक

टिकट का पैसा

वापस नहीं होगा