भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीत गए ग्यारह मास, पिया! (चैती)/ गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बीत गए ग्यारह मास, पिया! अब फागुन न बीते
जेठ भी बीता, आसाढ़ भी बीता, पूस के गए हैं दिन ख़ास
पिया! अब फागुन न बीते 
 
फूले कचनार, पलाश भी फूले
रंग गुलाब के आँखों में झूले
महुआ की महक उदास
पिया! अब फागुन न बीते
 
चली पुरवैया अबीर उड़ाती
बाग़ में कोयल है धूम मचाती
सरसों ने रच दिया रास
पिया! अब फागुन न बीते
 
अबकी मिलोगे तो जाने न दूँगी
प्यार के रंग में तन-मन रँगूँगी
कह दूँगी कानों के पास--
पिया! अब फागुन न बीते

बीत गए ग्यारह मास, पिया! अब फागुन न बीते
जेठ भी बीता, आसाढ़ भी बीता, पूस के गए हैं दिन ख़ास
पिया! अब फागुन न बीते