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बुतों के शहर में... / एम० के० मधु

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एक शहर खुलता रहा
कैलेन्डर की तरह परत दर परत
मटमैली सड़क और काला धुआं
और मिट्टी पर बहते लाल रंग

हम अख़बार के फलक पर रेंगते रहे
स्याह तस्वीरों की धूल साफ़ करते हुए
तस्वीर सामने थी-
एक हंसता खिलखिलाता बच्चा
दादा की उंगली पकड़
स्कूल जा रहा था
उंगली छुड़ा उसे जबरन उठा लिया गया
शहर चिल्लाता रहा
सायरन बजाती गाड़ियां दौड़ती रहीं

एक दिन वह दलित औरत
चौराहे के बीच में नंगी खड़ी थी
सामाजिक वैधानिकता के ठेकेदार
उसके बाल मुड़ा कर
सड़कों पर घुमा रहे थे
औपचारिकता के डंडे निशान पीटते रहे
सड़कें चीत्कार करती रहीं
वह लड़की परीक्षा देने
पिता के साथ रिक्शे पर जा रही थी
बीच रास्ते में उतार ली गई
पास की झाड़ी में
उसके कपड़े तार-तार होते रहे
पिता चीख-चीख कर
मदद मांगता रहा
और ख़ंजरों की भेंट चढ़ गया
इन्तज़ामिया की फाइलें
खुलती, बंद होती चली गईं

वह एक गरीब फोटोग्राफ़र था,
मुहल्ले के एक डॉन को
रंगदारी नहीं देने पर
उसके लेंस को
हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दिया गया
शहर में शोर होता रहा
खोजी कुत्तों का दस्ता
निशान सूंघता रहा

वे तीन मेधावी छात्रा थे
जिनने कभी चंदा से राशि जमा कर
कारगिल-शहीदों के परिवारों को
सहायता भेजी थी
ख़ाकी वर्दी और काले धंधेबाजों की सांठगांठ ने
उन्हें अपराधी कह इनकांउटर कर दिया
शहर वर्षों तक शोक मनाता रहा
निर्दोषों की मौत का हिसाब मांगता रहा
समय दर समय धुआं उठता रहा
मिट्टी पर गिरते लाल रंग
पांवों की धूल से धूमिल होते रहे
कभी आग, कभी पानी बरसता रहा
हवा कभी गर्म, कभी ठंडी बहती रही
पर वह अडिग था
हर चौराहे पर खड़ा
पत्थर सा, गूंगा और बहरा

आज भी धुआं उठ रहा है
वह आज भी अडिग है
हर चौराहे पर खड़ा, स्पन्दनहीन
दरअसल, हम चले आए हैं
बुतों के शहर में

ईश्वर को याद करो
बुत बोलते नहीं
बुत कुछ करते भी नहीं।