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बेटी बड़ी न हो / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर
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					कुतर के दाँतों से मिटटी की
मोटी गँठाने...
तबस्सुम खोल के तुतला के  कहती है 
'अब्बू अब्बू, अम्मी अम्मी'
कानो में जैसे फ्लूट बजा हो 
पेशानी पे उसकी लब रख देता हूँ अपने 
दो फ़िक्र से रिहाई मिलती है
बेटी बड़ी न हो
बेगम फिर हामिला हो जाए
एक और बेटी दे दे 
चार फिक्रों से निजात तो मिलती है
	
	