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भूमिकाः अपनी धरती की तलाश-श्री नंदकिशोर तिवारी

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जयप्रकाश मानस के दूसरे काव्य संग्रह ‘होना ही चाहिए आँगन’ में संग्रहीत कविताएँ मनुष्य के राग को लोक के राग के साथ जोड़ती संस्कृति के नए आयाम ढूढ़ती हैं । अपनी जगह तलाशती हैं । भूमंडलीकरण से उत्पन्न बाज़ारवाद की विभीषिका के बीच अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं ओर सपनों का संसार ढूंढ़ती हैं । मनुष्य के आदिम राग को अभिव्यक्ति देती है, जहाँ से मनुष्य ने जीवन प्रारंभ किया और उससे अलग कहीं दूर जाकर पुनः उन स्मरणों में पहुँच जाना होता है ।

‘गूँज रही है चिकारे की लोकधुन
पेड़ के आसपास अभी भी
छांह बाकी है
जंगली जड़ी-बूटियों की महक ’
कहने को इसे नास्टेलजिया कहा जा सकता है परंतु यह एक बड़े अर्थ में खोयी हुई धरती में अपनी धरती की तलाश है । वह धरती जो कवि की मूलतः अपनी धरती है, जो प्रकारांतर से सबकी होती एक अनूठे संसार की रचना करती है उसकी ताप को बचाए रखने की कोशिश करती है- ‘छेना आग को बचाए रखता है बहुत समय तक ’ इस संग्रह की कविताओं में घर, आंगन, मां, पिता, भाई, बहिन, सब हैं पर उनके दायरे हैं जो कहीं बंद होते जा रहे हैं । जब कभी बंद से हो जायें हम / आकाश को निहार कर खुल-खुल जाएँ ।
सच ये है कि ये कविताएँ लोक राग का पाठ हमें भी पढ़ाती हैं ।

नंदकिशोर तिवारी
संपादक, लोकाक्षर
विप्र सहकारी मुद्रणालय मर्यादित
कुदुदण्ड, बिलासपुर (छत्तीसगढ)