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मंदिर है उर धाम / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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तन के दीपक में प्राणों की ज्योति जगाये,
श्वास-श्वास है स्नेह घटता जाये ।
मन्दिर है उर धाम आपके लिए एक बस-
फिर कोई क्योंकि आकर इसमें बस जाये ?
अन्तहीन इच्छाओं नभ मन के ऊपर
नीरव है, घन - जीवन का उद्देश्य छिपाये ।
वैभव सागर के तट पर मैं रहा घूमता,
सीधी घोंघे बहुत, रत्न पर दृष्टि न आये ।
मन मराल क्यों खोज रहा विष तन्तु ताल में,
इधर न वारिज वंश कभी है खिले-खिलाये ।
रहे अतृप्त सदा दर्शन को नैन बाबरे,
भटक रहे है, आशाओं का दीप जलाये ।
कस्तूरी की भाँति बसे तो हो अन्तस में,
हम अज्ञानी मूढ्र किन्तु हैं समझ न पाये ।