भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन कहाँ को चल चला तू / मानोशी
Kavita Kosh से
।
मन कहाँ को चल चला तू ।।
छोड़ आया बाग़ सारे,
आसमाँ भर के सितारे,
चाँद हाथों से फिसल कर
गिर गया सागर किनारे,
ढूँढता क्या अब भला तू ।
मन कहाँ को चल चला तू ।।
बहुत देखे प्रेम-बंधन,
मोह में फँस झुलसता तन,
दौड़ता मन दिग्भ्रमित सा
और फिर ढल गया यौवन,
अब गिने क्यों कब जला तू ।
मन कहाँ को चल चला तू ।।
रात हो जब बहुत काली,
फूटती तब भोर-लाली
आस जब मुरझा रही हो,
विहँस आती बौर डाली
हारता क्यों हौसला तू ।
मन कहाँ को चल चला तू ।।