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माँ / विमलेश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
एक
माँ के सपने घेंघियाते रहे
जाँत की तरह
पिसते रहे अन्न
बनती रही गोल-गोल मक्के की रोटियाँ
और माँ सदियों
एक भयानक गोलाई में
चुपचाप रेंगती रही
दो
इस रोज बनती हुई दुनिया में
एक सुबह
माँ के चेहरे की झुर्रियों से
ममता जैसा एक शब्द गुम गया
और माँ
मुझे पहली बार
औरत की तरह लगी