मुग्धा के पांच भेद / रस प्रबोध / रसलीन
अंकुरितयौवना मुग्धा-वर्णन
विधि किसान जो उरि बए बीज तरुनता ल्याइ।
सो वय अवसर लहि भये अब कछु अंकुर आइ॥85॥
यौं बाला जोबन झलक झलकति उर में आइ।
ज्यौं प्रकटत मन को वचन बिय पुतरिन दरसाइ॥86॥
शैशवयौवना मुग्धा-वर्णन
तिय सैसव जोबन मिले भेद न जान्यो जात।
प्रात समै निसि घौस के दोउ भाव दरसात॥87॥
जो तिय सिसुता सम भयेउ जोबन आनि उदोति।
मीन राखि को भानु मैं ज्यौं निसि सम दिन होति॥88॥
ज्यौ वय तिथि बाढ़ति कला जोबन ससि अधिकाति।
त्यौं सिसुता निसि तिमिरु घटि छबि द्युति फैलति जाति॥89॥
उकसत ही तुव उरज अरु निकसनि लंक सुभाइ।
उकस निकस सब तियन के परी जिअन मैं आइ॥90॥
नवयौवना के दो भेदों में से
प्रथम भेद अज्ञातयौवना
वा दिन बाँधी साँस मैं होड़ सखिन सों ल्याइ।
सो... मेरे विय ठौर ह्वै हिय में उकसी आइ... ॥91॥
दुहूँ ओर उर मैं धरै सेंकि सेंकि कें चीर॥92॥
सखी गुनत जो तिय नयन कुच तकि बिहँसि लजाति।
मानौ कमल कलीन बिच अली बिहँसि रहि जाति॥93॥
तन सुबरन के कसत यों लसत पूतरी स्यास।
मनौ नगीना फटिक मैं जरी कसौटी काम॥94॥
नवलअनंगा-मुग्धा
ताजन मदन न मानही परे लाल बस माहिं।
हठे तुरँग लौं तिय नयन उचकतहूँ रहि जाहिं॥95॥
नवलअनंगा के दो भेदों में से
प्रथम भेद-अविदितकामा
भई ब्याधि ऐसी कछू छूटो खल ते हेत।
द्यौस चारितें चाँदनी मों चित करत अनेत॥96॥
द्वितीय भेद-विदितकामा
खेलतिहीं गुड़िया धरी गुड़वन संग मिलाइ।
निरखि निरखि फिरि आपु ही दृगन रही सकुचाइ॥97॥
नवल वधू-मुग्धा
सौतिन मुख निसि कमल भे पिय चख भए चकोर।
गुरजन मन सारंग भये लख दुलही मुख ओर॥98॥
तुव दीपति के बढ़त हीं हरि लीनो मन पीय।
दृग खोले बोले कहा अब हरि लै हौ जीय॥99॥
नवल वधू के दो भेद
है नवोढ़ पति संग जो सोवति अधिक डराइ।
अरु विस्रबन्धबोढ़ जो पति कौ नेकु पत्याइ॥100॥
सखी कहे लालाभरन नैकु न पहिरति बाम।
मन ही मन सकुचति डरति मरति लाल के नाम॥101॥
मोर मुकुट धरि एक सखि बधू दिखाई छाँह।
भगी पन्नगी लौं लपकि धाइ लगी उर मांह॥102॥
जतन जोर तें नवल तिय यौं पिय पै ठहराइ।
औषधि बल तें अगिनि में ज्यौ पारो रहि जाइ॥103॥
खौंहे आवति भावती जब पिय सौंहैं खात।
सुरति बात हिमिबात लहि सुखत मूल जलजात॥104॥
हँसति हँसति रति बात लहि यौं रोई गहि देह।
दमकि दमकि ज्यौं दामिनो पीछे बरसै मेह॥105॥
तिय अक्षन अरु ज्ञान मधि प्रीति न देत जनाइ।
जमुन गंग कौ पाइकै रहे सरस्वति भाइ॥106॥
नवलवधू में तृतीय भेद
लज्जा-आसक्त रतिकोविदा लक्षण
एक मते बिस्रब्ध सों लाजपरा रति होति।
सरसति जेहि रति लाज ते पियहि काम की जोति॥107॥
मों दृग खोलन को लला बिनै करी हिय लाइ।
पै इन नैननि नहिं लख्यो रही लाज सो छाइ॥108॥
हौं रीझी वा केलिको लखि चरित्र अभिराम।
जिती बढ़ति है लाज तिय तितो बढ़त पिय काम॥109॥
मुग्धा का मुड़ कर बैठना
नवला मुरि बैठनु चितै यह मन होत विचार।
कोमल मुख सहि ना सकत पिय चितवन को मार॥110॥
मुग्धा की सैन
सब निसि जागी पिय डरनि सोई मुख धरि हाथ।
प्रातहि ससि अरिको गह्यौ द्वै कमलन मिलि साथ॥111॥
मुग्धा की सुरतारंभ
यों भाजति नवला गही उरमधि स्याम निसंक।
मानौ तरपति बीजुरी धरी मेघ निज अंक॥112॥
मुग्धा की सुरति
यों रति राचति नवबधू नैकु नहीं ठहराइ।
ज्यौं हरनी बेधा गहै छूटन कौं अकुलाइ॥113॥
यौ नवला रति में करति भाँति भाँति किलकार।
ज्यौं फेरत ही साज के फिरत जात सुर तार॥114॥
सुरक्षा का सुरतांत
यौं मींजत कोऊ लला अबलन अंग बनाइ।
भले पुहुप की बास लौं साँसु न पाई जाइ॥115॥
टपकावति अँसुवा कुचन ओट किये पटलाज।
आली शिव के सीस इनि जमुन बहाई आज॥116॥
मुग्धा का मान
सखिन कहे रूसी तिया लखि पिय कियौ विचार।
कंट गड़यौ तब धन कह्यौ आवत हमैं निकार॥117॥
पिय परतिय कुच गहत लखि लली चली अनखाइ।
तब पिय धाइ लड़ाइ मुख चूमि लियै उर लाइ॥118॥
मध्या-भेद
समानलज्जा-मदना
इति उति दोऊ ओर झुकि आनि बीच ठहराइ।
लाज मदन मैं धन रहै तुला सूचिका भाइ॥119॥
रमनी मन पावत नहीं लाज मदन को अंत।
दोउ ओर ऐंची फिरै ज्यौं बिवि तिय को कंत॥120॥
तिय हिय पलन कपाट गति निरखि लेहु दृग कोर।
खुलत प्रेम के जोर तें मुँदत नेम के जोर॥121॥
बिजुकावत ही मदन के खिचत लाज गुन आइ।
बँधी कुरंगिनि लौं तिया उचकि उचकि मुर जाइ॥122॥
मध्या के चार भेदों में से
प्रथम भेद उन्नतयौवना
लिखि बिरंचि राख्यौ हुतौ यह सँजोग इक संग।
कुच उतंग तिय उर बढ़ै पिय उर बढ़ै अनंग॥123॥
द्वितीय भेद-उन्नतकामा
यौं तिय नैननि लाज मैं लसत काम के भाइ।
मिले सलिल मैं नेह ज्यौं ऊपर ही दरसाइ॥124॥
जो घट दीपक पूरि कै उमगौ नेह बनाइ।
सो तुव बतियाँ तें तिया प्रगट चुवत हैं आइ॥125॥
तृतीय भेद प्रगल्भवचना
प्रगलभ बचना नायिका मध्या के यह भाइ।
जो रिस धुनि सों आगहि रौकैं पियहि बनाइ॥126॥
प्रगल्भबचना-उदाहरण
पिय अविवेकी कमल ये नैकु न मोंहि सुहाहिं।
प्रति फूलन के मधुप कौ ठौर देत हिय माहिं॥127॥
चतुर्थ भेद-सुरतविचित्र
छिन रति छिनि विपरीत रुचि पूरित हियौ अनंग।
टुटत तार अरु जुटत है कूजत खग धुनि संग॥128॥
अधर निदर नासा चढ़ै दृगन फेरि सतराइ।
ठुनकि ठुनकि धन सुरति छिन पिय मन हरति बनाइ॥129॥
लघुलज्जा मध्या-लक्षण
लघु लज्जाहू इक मते मध्या बरनी जाइ।
जामैं कछु इक आनि कै लाज लेस रहि जाइ॥130॥
लघुलज्जा मध्या-उदाहरण
होउ जीति अकबारि की खेल बीच ते हारि।
ललन रहे अँगिया चितै ललना दियै निहारि॥131॥
लाज पाछिली संग तिनि तिय हिय निति नियराइ।
प्रीति नई हितकारिनिहि लखि रिसाइ फिरि जाइ॥132॥
मध्या का मुड़कर बैठना
पिय लखि मुरि बैठति नहीं कर घूँघट को भाव।
चोरी कै मन लाल की गोरी करति दुराव॥133॥
मध्या का सुरतारंभ
रति आरंभ निहारि जब झझकि बाँह सतिराति।
मृग दृग नासा अधर तें कोटि कला करि जाति॥134॥
बाँह गहत सतरात जब कर झझकति सुकुमारि।
चूर चूर मन करति है चूरिन की झनकारि॥135॥
मध्या की सुरति
छिनक रहत थिर थकित ह्वै छिनही मैं अकुलात।
रति मानति मनभावती ठनगन ठानति जात॥136॥
यौं रति मैं सुकुमारि के दृग उघरत मुँदि जात।
ज्यौं तारे आकास के झलकत दुरत प्रभात॥137॥
कान परत मृग लौं परें मुरछि ललन के प्रान।
कंठ ठुनुक नूपुर झुनुक दुहुन लई जब तान॥138॥
मध्या की विपरीत रति
रमति रमनि विपरीत यौं लाज मदन मैं थाकि।
ज्यौ रथ हाँकत सारथी दुहूँ लोक कौ ताकि॥139॥
मध्या का सुरतांत
बिगरे भूखन तन सजनि धनि बैठो परजंक।
पिय तन हेरति अनख सौं फेरि फेरि दृग बंक॥140॥
खिन मुकुरति है ढीठ ह्वै छिन लजि हेरत गात।
कौतुक लाग्यौ सखिन कौ पूछत रति की बात॥141॥