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मुझ में बसी थी धूप / वत्सला पाण्डे

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धूप थी मुझमें कि
धूप में थी मैं

जलना तो
बाहर भीतर
दोनों ही रहा

धूप की कुनकुनाहट
गुनगुना कर
क्या कहती रही

तपिश ही थी
चारों ओर
‘रूख’ कहीं आस पास
देखे ही नहीं

तपते थे पाखी
तपता था जग
उसमें तपते रहे हम

किसी का सुख
किसी का
बनी दुःख

मुझमें बसी थी
एक धूप