भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा बदन हो गया पत्थर का / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

       मेरा बदन हो गया पत्थर का

‘सोनजुही-से’ हाथ तुम्हारे
लकड़ी के हो गये
हारे दिन फीके हो गये
       नक्शा बदल गया सारे घर का

भिड़ने लगे जोर से दरवाज़े
छत, आँगन, दालान
सभी लगते आधे-आधे
       ख़ारीपन भर गया समुन्दर का

सिमट गयी हैं कछुए-सी बातें
दिन में दो दिन हुए
रात में चार-चार रातें
       तेवर बदला अक्षर-अक्षर का