ग्रीष्म ऋतु!
हाँ; मैं ग्रीष्म ऋतु का तपा दिनकर,
और तुम, मेरे ताप से झुलसी हरसिंगार।
शर्मिष्ठे!
तुम चंद्र ज्योत्सना,
शीतल स्पर्शानुभूति,
धरा पर सुवासित हरसिंगार के धवल पुष्प
की मानिंद वासंती मधुमास।
मैं सघन ताप संचरित कर
धरा को जलाता आवारा अग्निपुंज,
कुंठा, वेदना को उपजाता
ग्लोबल वार्मिंग;
मधुरे!
तुम शिवप्रिया, हरिप्रिया,
चंद्रप्रिया तुम पारिजात,
मैं सेमल!
हाँ; मैं सेमलपुष्प, निरर्थक
देवस्नेह से च्युत!
पूर्णिमे!
तुम चाँदनी बन धरा को शीतल कर रही,
मैं अमावस का दिनकर!
सरले!
मैं उग्र, तुम सरल,
तुम अमिय, मैं गरल,
तुम शिवजटा पर शोभित हरसिंगार,
मैं क्षार, हाँ मैं महज क्षार!