भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे मन के समंदर में / सुशीला पुरी
Kavita Kosh से
					
										
					
					मेरे मन के समंदर में 
ढेर सारा नमक था 
बिलकुल खारा 
स्वादहीन
उन नोन चट दिनों में 
हलक सूख जाती थी 
मरुस्थली समय 
ज़िद किए बैठा था 
नन्हे शिशु-सी मचलती थी प्यास 
मोथे की जड़ की तरह 
दुःख दुबका रहता था भीतर 
उन्ही खारे दिनों में 
मेरे हिस्से की मिठास लिए 
समंदर की सतह पर 
छप-छप करते तुम्हारे पाँव 
चले आए सहसा
 
और 
नसों में 
घुल गया चन्द्रमा ।
	
	