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म्हारी म्हैं जाणूं / पारस अरोड़ा
Kavita Kosh से
अचाणचक
पोल व्हेगी
पगां हेटली जमीं
पग, गोड़ां लग
जमीं में धंसग्या,
आखती-पाखती ऊभा
लोगां नै पुकारिया,
अचरज
कै वै सगळा
माटी री मूरतां में बदळग्या, माटी में धंसग्या
स्यात
कोई रौ स्राप फळग्यौ व्हैला
लाखां रा लोग
कोडियां रा व्हेगा !
म्हैं धरती रै कांधै धर हाथ
आयग्यौ बारै
अबै वै
गळै तांई धस्योड़ा लोग
बुला रैया है म्हनै ।
म्हारा दोय हाथां में सूं
एक म्हारौ है
दूजौ सूंपूं हूं वांनै
आ जाणता थकां ईं
कै बारै आय’र नै
औ इज हाथ
काटण में लागैला,
पण वांरी वै जाणै
म्हारी म्हैं जाणूं ।