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यह रात / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
हुंकारती हुई आँधी बन कर
यह रात
बहुत सँकरी गलियों में
भाग रही है
भटक रही है
हुमस रही है
हाँफ रही है
ढूँढ़ रही अपने बछड़े को
जैसे व्याकुल गाय-
आयु सी रीत रही है
बीत रही है
अर्थहीन पागल प्रलाप-सी
और भूख-सी
और चीख-सी
भय-सी चिन्ता-सी
आहत-हिंसक-उद्विग्न
बौखलाहट जैसी....
काली भूरी रक्तिम सफेद
कथरी बादल की
तनी हुई है आसमान पर
उसे फाड़ कर
हिरना हिरनी और बधिक
हैं भाग रहे निःशब्द
तीन तारों का धर कर भेस-
केश खोले अवाक् सी
उनको जाते
ताक रही यह रात
अधर में झूल गई है!