भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
याद का एक टुकड़ा / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
तुम्हारी याद का एक टुकड़ा
सन्नाटे की आँच पाकर
अकसर तड़प उठता है
और रिसने लगती है
बीनाई की कुछ ताज़ी बूँदें
मेरी लहूलुहान नंगी आँखों से।
ख़ुदा जाने कैसे
मेरे ज़ख़्मी बदन पर
उग आते हैं कुछ फूल
जिसकी खुशबू ही नहीं, रंग भी
तुम्हारी हँसी की तरह होते हैं
और ज़िस्म के भीतर
सुनाई देती है रूह की सुगबुगाहट।
मैं देख रहा हूँ कुछ महीनों से
तुम्हारी याद का एक टुकड़ा
सन्नाटे की आँच पाकर
अकसर तड़प उठता है।