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ये शहर / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
ये शहर
जबरन घुसा जाता
हमारे गाँव में
एक सपना
सा हुआ
करता कभी था ये शहर
अब सभी सपनों के ऊपर
ढा रहा है ये कहर
ये शहर
लालच सिखाता है
हमारे गाँव में
सड़क क्या आई
शहर से
शोर भरकर साथ लाई
गुनगुनाते भोर की अब
गाँव से होती विदाई
ये शहर
कचरा बहाता है
हमारे गाँव में
गाँव में
जंगल नहीं अब
लग गए भट्ठे वहाँ पर
लहलहाते धान थे
कंक्रीट के जंगल जहां पर
ये शहर
अब मुँह छुपाता है
हमारे गाँव में।