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योगी बन अन्याय देखना, इसको धर्म नहीं कहते हैं / ऋषभ देव शर्मा
Kavita Kosh से
योगी बन अन्याय देखना, इसको धर्म नहीं कहते हैं
धर्म प्राण तो धर्म नाम पर, अत्याचार नहीं सहते हैं
नन्हीं मुझसे रोज़ पूछती, क्या अंतर मंदिर-मस्जिद में
ऊँजी बुर्जी की छाया में, ऊँचे अपराधी रहते हैं
धुआँ-धुआँ भर दिया गगन में, घर-घर में बारूद धर दिया
पग-पग पर ज्वालामुखियों के, विस्फोटों में जन दहते हैं
बहुत हुआ उन्माद रक्त का, बहुत किश्तियाँ लूट चुके वे
जब जनगण का ज्वार उफनता, पोत दस्युओं के बहते हैं
बाजों के मुँह खून लगा है, रोज़ कबूतर वे मारेंगे
आप मचानों पर चुप बैठे, कैसा पुण्य लाभ लहते हैं