भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात / सत्यप्रकाश बेकरार
Kavita Kosh से
रात अंधेरी काली कितनी हो
रात रात है टल जाएगी,
सूरज सूरज है निकलेगा ही
भोर सुहानी छा जाएगी।
पर यह भी एक सुनहरा धोखा है।
मैं अभी-अभी सूरज से मिलकर आया हूं,
जो वहां पहाड़ी के पीछे
कीचड़ में धंसा पड़ा है
निर्बल और बीमार पड़ा है।
हम जैसे कुछ लोग
आगे आएं
रस्से लाएं
नीचे जाएं
सब मिल-जुलकर सूरज को खींचें,
सुबह उगाई जाती है
हर बात बनाई जाती है।