भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राम की कृपालुता / तुलसीदास/ पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



राम की कृपालुता-4


( छंद संख्या 7,8)


(7)
 
अपराध अगाध भएँ जनतें , अपने उर आनत नाहिन जू।
गनिका, गज, गीध, अजामिलके गनि पातकपुंज सिराहिं न जू।।

लिएँ बारक नामु सुधामु दियो, जेहिं धाम महामुनि जाहिं न जू।
तुलसी! भजु दीनदयालजि रे! रघुनाथ अनाथहि दाहिन जू।7।

(8)

प्रभु सत्य करी प्रहलादगिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ।
झषराज ग्रस्यो गजराजु, कृपा ततकाल बिलंबु कियो न तहाँ।

सुर साखि दै राखी है पांडुबधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
 तुलसी! भजु सोच-बिमोचनको, जनको पनु राम न राख्यो कहाँ।8।