भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रावण ओर मंदोदरी / तुलसीदास / पृष्ठ 2
Kavita Kosh से
रावण ओर मंदोदरी
( छंद संख्या 19 से 20 )
(19)
बालि दलि, काल्हि जलजान पाषान किये,
कंत! भगवंतु तैं तउ न चीन्हें।
बिपुल बिकराल भट भालु -कपि काल-से,
संग तरू तुंग गिरिसृंग लीन्हें।
आइगो कोसलाधीसु तुलसीस जेहिं
छत्र मिस मौलि दस दुरि कीन्हें।
ईस बससीस जनि खीस करू,
ईस! सुनु, अजहूँ कुलकुसल बैदेहि दीन्हें।19।
(20)
सैनके कपिन को को गनै ,
अर्बुदै महाबलबीर हनुमान जानी।
भूलिहै दस दिसा, सीस पुनि डोलिहैं,
कोपि रघुनाथु जब बान तानी।
बालिहूँ गर्बु जिय माहिं ऐसो कियो
मारि दहपट दियो जमकी घानीं।
कहति मंदोदरी, सुनहि रावन!
मतो बेगि लै देहि बैदेहि रानी।20।