राह-ए-उल्फ़त में गुल कम / कबीर शुक्ला
राह-ए-उल्फ़त में गुल कम ज़्यादा पत्थर ही मिलेंगे।
उम्मीदे-गुल ना रखना हर डगर में नश्तर ही मिलेंगे।
जिनका इश्क चढ़ा परवान नादाँ ग़र्दिश में मिल गये,
यहाँ हाल-ए-दिल-ए-आश्ना बद से बदतर ही मिलेंगे।
सच कहा किसी ने कि इंसाँ तो बस बरबाद हुआ है,
इश्क मुकम्मल हुआ ऐसे फरिस्ते कमतर ही मिलेंगे।
ख़ुमारे-इश्क़ कहूँ इसे या बादिया-ए-ज़हर कह दूँ,
चख-चख के दो-दो बूँद अधमरे बेखबर ही मिलेंगे।
मैं अकेला नहीं जिसे है इश्क़े-तिजारत से शिकवा,
पूछ कर देखिये रूसवा शहर के शहर ही मिलेंगे।
रूख़्सारे-शादमानी फरेब है वफ़ा हिज़ाबों में कैद है,
वफ़ादार तुझे इक हजार में सत्तर बहत्तर ही मिलेंगे।
जाने क्या हस्र होगा सफ़ीना-ए-मुहब्बत-ए- 'कबीर' ,
तुझे जहाने-इश्क में तूफाँ दरिया समंदर ही मिलेंगे।