रुचिर तपन-तनया-तट, / हनुमानप्रसाद पोद्दार
रुचिर तपन-तनया-तट, निभृत-नव-निकुंज-निकट,
निरतत नव नागर नट, लसत पीत पट ललाम।
सोभा निरुपाधि सजत, कोटि-कोटि काम लजत,
मुरलि अधर मधुर बजत, भजत संत नित निकाम॥
मृग-मद रुचि तिलक भाल, चंचल लोचन बिसाल,
कुंचित कच कृष्न जाल, भ्रुकुटि कुटिल कला-धाम।
करि-बर-मद-हरनि चाल, कटि किंकिनि-रव रसाल,
सुरभित बन-कुसुम-माल, रत्नहार कंठधाम॥
कुंडल मनि-रत्न-चमक, सुचि कपोल गोल दमक,
अंग-अंग सुरभि-गमक, रमा रमत वक्षधाम।
निपट सुखद खटपट-रति, लपट-झपट नटखट गति,
आकरषत तन-मन-मति, इंद्रिय झट बिना दाम॥
मृदु मधु मुसुकान बिमल, मुनि-जन-मन हरत सबल,
मिटत दुःख-दैन्य सकल, परम रय सुधा-धाम।
रसमय रसराज सतत, रस-बरषा बरसत नित,
नेह-सिंधु उमगि अमित, बहे अन्य रस तमाम।
बाढ्यौ अति प्रेम-भाव, सब-कें मन भर्यौ चाव,
भाव भयौ महाभाव, भूले सब नाम-धाम॥