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रेखा-चित्र / प्रभाकर माचवे
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संझा है धुन्धली, खड़ी भारी पुलिया देख,
गाता कोई बैठ वाँ, अन्ध भिखारी एक ।
दिल का बिल्कुल नेक है, करुण गीत की टेक —
‘साईं के परिचै बिना अन्तर रहिगो रेख' ।...
(उसे काम क्या तर्क से, एक कि ब्रह्म अनेक !)
उसकी तो सीधी सहज कातर गहिर गुहार :
चाहे सारा अनसुनी कर जाए संसार !
कोलाहल, आवागमन, नारी-नर बेपार,
वहीं रूप के हाट में, जुटे मनचले यार ।
रूपज्वाला पर कई लेते आँखें सेक —
कई दान के गर्व में देते सिक्के फेंक !
कोई दरद न गुन सका, ठिठका नहीं छिनेक,
औ’ उस अन्धे दीन की रुकी न यकसाँ टेक —
‘साईं के परिचै बिना अन्तर रहिगौ रेख !'