रोटी और बेटी / दिनेश कुमार शुक्ल
रोटी और बेटी
बची है एक दालान
और फैलता
मंगोलिया तक चला गया है
आँगन पुश्तैनी घर का
तीन तरफ दीवारें त्रिकाल-सी
धँस कर डूब गईं
विस्मृति में-
लिए-दिए साथ-साथ
कितनी ही अल्पनाएँ-भित्तिचित्र
चूल्हा फूँकती
लाल मुखमंडल
दमकती है बेटी
उदन्त-मार्तण्ड-सी
गीली लकड़ियों से उठती
भरती ब्रह्माण्ड में
धुंध उन वनों की
जहाँ आखेटक बन जाते थे
धीरे-धीरे किसान-
छा रहा है गंदुमी-गोधूम....
सिंकती अंगारों पर
अर्थों से भरती
फूल कर कुप्पा हो उठती है
रोटी-
बेटी के अरुणोदय में
मिलाती अपनी दीप्ति
रोटी वह पहिया है
जिसका आविष्कार
रोज-रोज दो बार
करती हैं बेटियाँ
सीता की तरह
हल की फाल से
निकल कर
आती है बेटियाँ
साथ-साथ उनके
रोटियाँ फुदकती चली आती हैं
चिड़ियों सी....
रोटियों के रथ पर
बैठकर बेटियाँ
जाएँ ससुराल
उतरेंगी पाताल
नचाती रोटियों के प्रार्थना चक्र
और रोटियाँ
नचाती रहेंगी उन्हें
दुख-सुख के आँगन में
बेटियाँ हैं
अंतरिक्ष, दिशायें
जहाँ पैदा होते हैं नक्षत्र
बेटियाँ हैं नदियाँ-
अपने सत्त से सिझातीं
फ़स्लों को
खेतों को करतीं पुरनम
अपनी करुणा से
रोटी है बेटियों का प्रभामंडल
रोटी है-
सप्तसिन्धु-कुरुक्षेत्र-
काशी-कोसल-मगध-
आर्यों का आक्रमण,
स्वराज्य, सुदर्शन चक्र,
नानबाई के किस्सों की दूकान,
रसायन-संयंत्र, विशाल जलयान,
अजगर-सी लम्बी रेल,
तोंदियल अन्नागार!
बेटियाँ होती हैं
पूस की धूप-
पिघले हुए कुन्दन-सी
पोर-पोर व्यापती
नवान्न के दानों में
जानती हैं बेटियाँ
ठीक-ठीक
कितनी खूराक अग्नि की
देनी है रोटियों को,
कि कितनी आँच में
पकी किस रोटी का
होगा कैसा मिज़ाज़
जानती हैं बेटियाँ....
बेटियाँ रोटियों के साथ
खुद को सौंप जाती हैं
वसीयत में-
बेटियों की बेटियों को
इस तरह, दुनिया
चलती रहती है
रोटी के पहियों पर
रोटी है
सूकवि सूकान्त का चन्द्रमा-
खींचती अपनी ओर
समुद्र को
कवियों को
चंद्रोत्कंठित-पृथिवी
कविता और रोटियों से क्यों नहीं
भर देती
बेटियों की दुनिया को
स्वप्नों को और
सारी भूख को?