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लग रहा है / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
है इधर हलचल
उधर भी
शोर सा कुछ है
खोल दो खिड़की
नया कुछ लग रहा है
पर, वही गलियाँ
वही कन्धे
वही बोझिल सलीवें
चुभन काँटों की
कसकती फाँस
कुछ सुखद अहसास
बुनती सी फिज़ाएँ
कुछ मधुर अश्वस्तियाँ
लिपटे हुए संत्रास
लग रहे कुछ
सिमटते-मिटते धुँघलेके
फिर कोई सूरज
कहीं तो उग रहा है।
क्या बिछेगी फिर
सुनहली धूप आँगन में
फिर
महकती साँझ का
अमरित झरेगा
घोंसलों में चहक-गुंजित
सोहरों के गीत
बाँस वन में फिर कोई
दरिया बहेगा
आदमीयत
बाझ तो हर्गिज़ नहीं है
प्यार उसकी
कोख में भी जग रहा है।