भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़-लड़ के फरिया लेबो / जयराम दरवेशपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तू जर के भुंजा होबइत रहऽ
एक्के फक्का में खा जइबो

बड़ दिन दाल गललो तोहर
अबकी हम्मर पारी हो
मोंछ टेबला ढेर दिना तक
अब हम्मर दाव करारी हे
कतनो डेग बदलवा हम तो
लड़-लड़ के फरिया लेबो

न´ हम लुच्चा ही लंपट ही
झूठ मूठ धमकइवा की
तोर सभे छपकी हे बूझल
हमरा आउ डेरइवा की
बन ला बनइ के हो जतना
चउपट्टी से धुरिया देवो

बूझऽ ही सब चाल तोहर
अबकी दाँत खिसोड़ देवहो
आँख उठा के बोल हो तऽ तू
कत्ते कसेली तोड़ देलहो
लाज हया ताखा पर धइला
सब हैंकड़ी भुला देवो

समझऽ लगला एकरा लागी ही जागल
जान हथेली पर ही लेले कफ्फन टँगना हे टाँगल
जउन चाल चलवा छुप छुप के
फूंक से आग लगा देबो।